राजा अजीत सिंह का जन्म 16 अक्टूबर 1861 को राजस्थान के झुंझुनूं जिले में स्थित अलसीसर नामक स्थान पर हुआ था।
उनके पिता का नाम ठाकुर छत्तू सिंह था। जब खेतड़ी के तत्कालीन राजा फतेह सिंह का देहांत हुआ तो अजीत सिंह 1870 में खेतड़ी के राजा बने। उन्हें गोद लिया गया था।
साल 1876 में उनका विवाह रानी चंपावतजी साहिबा के साथ हुआ। उनके एक बेटा और दो बेटियां थीं। अजीत सिंह स्वामी विवेकानंद के प्रिय शिष्य ही नहीं बल्कि उनके सबसे करीबी मित्र भी थे।
स्वामीजी अपने जीवन में तीन बार खेतड़ी आए। पहले 1891 में, फिर विश्वधर्म सम्मेलन में जाने से पहले 1893 में और आखिरी बार 1897 में।
जब स्वामीजी ने अपने व्याख्यान से अमेरिका में विजय परचम फहराया तो सबसे ज्यादा प्रसन्नता राजा अजीत सिंह को हुई। इस खुशी में खेतड़ी में घी के दीपक जलाए गए और दीपावली मनाई गई।
इतने दानवीर थे राजा अजीत सिंह
स्वामीजी महान सिद्ध पुरुष थे। उनका ज्ञान, उच्च चरित्र और निष्कलंक जीवन देखकर ही राजा अजीत सिंह उनके शिष्य बने थे। जब स्वामीजी विश्वधर्म सम्मेलन में भाग लेने अमेरिका जा रहे थे तब अजीत सिंह ने उनसे कहा था कि आपके मार्गव्यय के पुण्य कार्य का सौभाग्य खेतड़ी को प्राप्त करने दीजिए।
और उन्होंने स्वामीजी के लिए संपूर्ण राशि का प्रबंध किया। राजा अजीत सिंह बहुत बड़े दानवीर भी थे। कम ही लोग यह जानते होंगे कि स्वामीजी के पिता का देहांत होने के बाद उनके परिवार को गंभीर आर्थिक संकट का सामना करना पड़ा था। ऐसे में अजीत सिंह ने उनके परिवार की बहुत मदद की।
इस राजा का आज भी है बहुत सम्मान
इस स्थिति में राजा अजीत सिंह हर माह उनके परिवार को 100 रुपए भेजा करते थे, लेकिन उन्होंने कभी इसे प्रतिष्ठा का प्रश्न नहीं बनाया और कभी इसका जिक्र नहीं किया।
एक ओर जहां ब्रिटिश काल में कई राजा-महाराजा अपनी प्रजा पर जुल्म करते थे, वहीं राजा अजीत सिंह को अपनी प्रजा से बहुत प्रेम था। यही वजह है कि आज भी खेतड़ी के लोग अपने इस राजा का नाम आदर से लेते हैं।
खेतड़ी के ठाकुर को कोटपुतली का परगना और राजा बहादुर का उपटंक प्राप्त होने पर उनकी प्रतिष्ठा में और वृद्धि हुई। यहाँ के पांचवें शासक राजा फतहसिंह के बाद राजा अजीतसिंह अलसीसर से दत्तक आकर खेतड़ी की गद्दी पर आसीन हुये। वे अपने सम-सामयिक राजस्थानी नरेशों और प्रजाजनों में बड़े लोकप्रिय शासक थे। वे जैसे प्रजा हितैषी, न्याय प्रिय, कुशल प्रबंधक, उदारचित्त थे, वैसे ही विद्वान, कवि और भक्त हृदय भी थे। राजस्थान के अनेक कवियों ने राजा अजीतसिंह की विवेकशीलता, न्यायप्रियता और गुणग्राहकता की प्रशंसा की है।
राजा अजीत सिंह संगीत के भी बड़े ज्ञाता थे। जब वे वीणा वादन करते थे तब स्वामी विवेकानन्द “प्रभु मोरे अवगुन चित्त न धरो” पद को बार-बार घंटों गाते रहते थे और दोनों अभिन्न हृदय झूम उठते थे। राजा अजीतसिंह एक न्याय प्रिय शासक ही नहीं अपितु, भक्त एवं दार्शनिक विद्वान थे। शेखावाटी के साहित्यकारों, धनाढ्यों और राजा खेतड़ी ट्रस्ट को इस महान विभूति के साहित्य का प्रकाशन करना चाहिए।
राजा अजीतसिंह के एक अप्रकाशित भक्ति पद की कुछ पंक्तियाँ-
अब पिय पायो री मेरो, मैं तो कीन्हों बहुत ढंढेरो।
दृढ विराग को पिलंग बिछायो, दीपक ज्ञान उजेरो।।
करुणा आदि सखी चहुँ औरी, आनन्द भयो घनेरो।
भेद दीठ वह सोति भरी तब, मिल गयो घर को नेरो।।
ताहि रिझाय करुँगी मैं अपनो, अपनो आपो हेरो।
नाहीं गिनो लगन निशि वासर, नाहीं न सांझ सवेरो।।
खुद मस्ती मद प्यालो पीके, दूजों भयो न फेरो।
घिल मिल हो के रंग में छाकी, तेरो रह्यो न मेरो।।
कवि और भक्त हृदय राजा अजीतसिंह ने उपर्युक्त पद में पिता परमेश्वर को पति रूप में स्मरण कर रूपक बाँधा है। इसमें वैराग्य रूपी पलंग बिछाया है और उसमें ज्ञान रूपी दीपक का प्रकाश किया है। दया और करुणा रूपी सखियों को साथ लेकर भेद रूपी सौतन को मारकर निर्भयता प्राप्त की है। अब उनके बीच कोई भी बाधक नहीं बचा है। खुद मस्ती के मद के चषक का पान कर मस्त हो जाना प्रकट किया है और द्वैत भाव को नष्ट कर दिया है।
गुरु-शिष्य में यह भी है एक समानता
लेकिन राजा अजीत सिंह की आयु अधिक नहीं रही। 18 जनवरी 1901 को उत्तरप्रदेश के सिकंदरा में उनका देहांत हो गया। यानी स्वामीजी के जन्मदिवस (12 जनवरी) से ठीक छह दिन बाद।
इसके अलावा दोनों में एक और समानता है। अपने शिष्य की मृत्यु से स्वामीजी को भी बहुत दुख हुआ और अगले ही साल वे भी (4 जुलाई 1902) ब्रह्मलीन हो गए। स्वामी जी ने स्वीकार किया है कि उनकी सफलता में राजा अजीत सिंह का अत्यधिक योगदान था। जब भी स्वामीजी की कीर्ति और यश का जिक्र किया जाएगा, राजा अजीत सिंह का नाम अवश्य आएगा।
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